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gehu ki fasal

गेहूं की फसल में खरपतवार नियंत्रण

गेहूं की फसल में खरपतवार नियंत्रण

गेहूं उत्तर भारत की मुख्य फसल है और इसमें खरपतवार मुख्य समस्या बनते हैं। खरपतवारों में मुख्य रूप से बथुआ, खरतुआ, चटरी, मटरी, गेहूं का मामा या गुल्ली डंडा प्रमुख हैं। जिन्हें हम खरपतवार कहत हैं उनमें मुख्य रूप से गेहूं का मामा फसल को ज्यादा नुकसान पहुंचाता है और इसका नियंत्रण ज्यादा बजट वाला है। बाकी खरपतवार बेहद सस्ते रसायनों से और शीघ्र मर जाते हैं। 

समय

Gehu ki fasal 

 विशेषज्ञों की मानें तो खरपतवार नियंत्रण के लिए सही समय का चयन बेहद आवश्यक है। यदि सही समय से नियंत्रण वाली दबाओं का छिड़काव न किया जाए तो उत्पादन पर 35 प्रतिशत तक प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। धान की खेती वाले इलाकों में गेहूं की फसल में पहला पानी लगने की तैयारी है और इसके साथ ही खरपतवार जोर पकड़ेंगे। चूंकि किसान पहले पानी के साथ ही उर्वरकों को बुरकाव करते हैं लिहाजा ऐसी स्थिति में खरपतवारों को पूरी तरह से मारना और ज्यादा दिक्कत जदां हो जाता है। विशेषज्ञ 25 से 35 दिन के बीच के समय को खरपतवार नियंत्रण के लिए उपयुक्त मानते हैं। इसके बाद दवाओं का फसल पर दुष्प्रभाव भले ही सामान्य तौर पर न दिखे लेकिन उत्पादन पर प्रतिकूल असर होता है। 

कैसे मरता है खरपतवार

Gehu mai kharpatvar 

 खरपतवार को मारने के लिए बाजार में अनेक दवाएं मौजूद हैं लेकिन इससे पहले यह जान लेना आवश्यक है कि दवाओं से केवल खरपतवार ही मरता है और फसल सुरक्षित रहती है तो कैसे । फसल और खरपतवार की आहार व्यवस्था में थोड़ा अंतर होता है। फसल किसी भी पोषक तत्व का अवशोषण जमीन से सीमित मात्रा में करती है। खरतवारों के पौधों का विकास बहुत तेज होता है और वह कम खुराक से भी अपना काम चला लेते हैं। ऐसे में जो खरपतवारनाशी दवाएं छिड़की जाती हैं उनमें जिंक आदि पोषक तत्वों को मिलाया जाता है। इनका फसल पर जैसे ही छिड़काव होता है खरपतवार के पौधे उसे बेहद तेजी से ग्रहण करते हैं और दवा के प्रभाव से उनकी कोशिकाएं नष्ट हो जाती हैं। इधर मुख्य फसल के पौध इन्हें बेहद कम ग्रहण करता है और कम दुष्प्रभाव को झेलते हुए खुद को बचा लेता है।

ये भी पढ़े: जानिए गेहूं की बुआई और देखभाल कैसे करें

खरपतवार की श्रेणी

kharpatvar 

 खरपतवार को दो श्रेणियों में बांटा जाता है। गेहूं में संकरी और चौड़ी पत्ती वाले दो मुख्य खरपतवार पनपते हैं। किसान ऐसी दवा चाहता है जिससे एक साथ चौड़ी और संकरी पत्ती वाले खरपतवार मर जाएं। इसके लिए कई कंपनियों की सल्फोसल्फ्यूरान एवं मैट सल्फ्यूरान मिश्रित दवाएं आती हैं। इस तरह के मिश्रण वाली दवाओं से एक ही छिड़काव में दोनों तरह के खरपतवार मर जाते हैं। केवल चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार मारने के लिए टू फोर डी सोडियम साल्ट 80 प्रतिशत दवा आती है। 250 एमएल दवा एक एकड़ एवं 625 एमएल प्रति हैक्टेयर के लिए उपोग मे लाएं। पानी में मिलाकर 400 से 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करने से तीन दिन में चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार मर जाते हैं। केवल संकरी पत्ती वाले गेहूंसा, गेहूं का मामा, गुल्ली डंडा एंव जंगली जई को मारने के लिए केवल स्ल्फोसफल्फ्यूरान या क्लोनिडाफाप प्रोपेरजिल 15 प्रतिशत डब्ल्यूपी 400 ग्राम प्रति एकड़ को पानी में घोलकर छिड़काव करें।

 

सावधानी

kitnashak dawai 

 किसी भी दवा के छिड़काव से पूर्व शरीर पर कोई भी घरेलू तेल लगा लें। दस्ताने आदि पहनना संभव हो तो ज्यादा अच्छा है। दवा को जहां खरपतवार ज्यादा हो वहां आराम से छिड़कें और जहां कम हो वहां गति थोड़ी तेज कर दें ताकि पौधों पर ज्यादा दवा न जाए। दवा छिड़कते समय खेत में हल्का पैर चपकने लायक नमी होनी चाहिए ताकि खेत में नमी सूखने के साथ ही खरपतवार भी सूखता चला जाएगा।

गेहूँ की फसल की बात किसान के साथ

गेहूँ की फसल की बात किसान के साथ

आज हम गेंहूं की खेती के बारे में बात करेंगें. विश्व के 25 से 30% भाग पर प्राय गेहूँ की खेती की जाती है.आज हमारा देश खाद्यान के मामले में किसी के ऊपर आश्रित नहीं है इसमें हमारे वैज्ञानिक, राजनेताओं ( हरितक्रांति) एवं किसानों का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है. एक समय ऐसा था की हम अपने खाने के लिए दूसरे देशों पर आश्रित थे उनका गला सड़ा गेंहूं हमको खाने को मिलता था. घर में पूड़ियाँ या गेंहूं की रोटी किसी विशेष रिश्तेदार के आने पर ही बनती थीं ( शायद आज की पीढ़ी को ये बात थोड़ी अटपटी लगे), पर आज ऐसा नहीं है आज हम अन्य देशों को गेंहूं और दूसरे अनाजों का निर्यात करते हैं.

गेहूँ के लिए खेत की तैयारी:

सामान्यतः गेंहू की जड़ ज्यादा गहरी नहीं जाती है और इसकी पेड़ से पेड़ की दूरी ज्यादा नहीं होती है. इसकी जड़ छतराई होती है तो इन्हें खेत के ऊपर की खाद और उर्बरक ज्यादा फायदेमंद रहती है. इसके खेत में ज्यादा जुताई की जरूरत नहीं रहती है लेकिन ऐसा भी नहीं है की इसके खेत में खरपतवार ही ना खड़ा रहे. अगर खाली खेत में गेंहूं बोना हो तो इसकी लास्ट वाली जुताई में खेत में गोबर का बना हुआ खाद मिला दें और अगर आपको धान के खेत में बोना हो तो सुपरसीड़र से भी बुबाई कर सकते है. खेत में पर्याप्त नमी होनी चाहिए, जिससे की पौधे को 20 से 25 दिन तक का समय मिल जाये. धान, बाजरा, या अन्य खरीफ की फसल काटने के बाद खेत की पहली जुताई  मिट्टी पलटने वाले हल (एमबी प्लोऊ) से करनी चाहिए जिससे कि खरीफ फसल के अवशेष और खरपतवार मिट्टी मे दबकर सड़ जायें. इसके  बाद आवश्यकतानुसार 2-3 जुताइयाँ देशी हल-कल्टीवेटर से करनी चाहिए. हरेक जुताई के बाद पाटा/ सुहागा  देकर खेत समतल कर लेना चाहिए, इससे खेत में नमी बनी रहती है तथा खेत भी समतल रहता है तथा इससे खेत में पानी भी सामान मात्रा में लगता है.

उन्नत किस्में तथा उनका चयन:

हमें किस्मों का चुनाव करते समय अपने क्षेत्र एवं जलवायु का विशेष ध्यान रखना चाहिए. हमारे वैज्ञानिक निरंतर किसान कि उपज बढ़ने के लिए प्रयासरत हैं तथा एक से बढ़कर एक किस्म किसानों के लिए विकसित कर रहे हैं.हम नीचे पूसा कृषि संस्थान द्वारा तैयार कि गई किस्मों के जानकारी दे रहे हैं, जो निम्न प्रकार है:

गेहूँ की उन्नत किस्में और उनकी विशेषताएं:

गेहूँ की प्रजाति करीब करीब 300-400 के करीब है लेकिन बहुतायत में प्रयोग की जाने वाली प्रजाति सिर्फ 30-35 ही होती है. हमेशा किसान को नया बीज ही प्रयोग में लाना चाहिए लेकिन कई बार ये संभव नहीं है क्यों की किसान को बीज खरीदने में अच्छा खासा पैसा लगाना होता है. अगर आप नया बीज नहीं ले पते हो तो कोशिश करें की कीड़ा ( घुन और पई) लगा हुआ बीज प्रयोग में ना लाएं. बाकि किस्मों की जानकारी ऊपर दी जा चुकी है.

बुवाई का समय:

गेंहू की बुवाई का सही समय तो प्रजाति पर निर्भर करता है, अगर कोई प्रजाति पकने में ज्यादा समय लेती है तो उसकी बुबाई पहले की जाती है जिससे की ज्यादा गर्मी से पहले गेंहूं की बलि को पकने का समय मिल सके. जब मौसम ज्यादा गर्म हो जाता है तो गेंहूं की बाली को पकने का समय ठीक से नहीं मिल पता है जिससे हमारे उत्पादन पर फर्क पड़ता है. इस तरह से गेंहूं को बोन का सही समय नवंबर का महीना सही होता है जो की अधिकांश प्रजाति के लिए सबसे मुफीद समय होता है. सामान्यतः बुवाई अक्टूबर से दिसंबर तक की जाती है जिससे की हमारी फसल को पकने का सही समय मिल सके तथा अंतिम पानी होली से पहले दिया जा सके जिससे की जब गर्मी का मौसम शुरू होता है तो हवाएं तेज चलने लगती हैं जिससे पानी से गेंहूं के गिरने का डर रहता है. फसल की अच्छी पैदावार प्राप्त करने हेतु उचित मात्रा में खाद, बीज एवं उर्वरकों का प्रयोग होनाआवश्यक है. खेत में अच्छी बनी हुई गोबर या कम्पोस्ट खाद दो या तीन साल में 8 से 10 टन प्रति हैक्टेयर की दर से अवश्य देनी चाहिये। इसके अतिरिक्त गेहूं की फसल को 100 से 120 किग्रा. नाइट्रोजन एवं 60 से 80 किग्रा. फास्फोरस प्रति हैक्टेयर की आवश्यकता होती है। नाइट्रोजन की आधी एवं फास्फोरस की समस्त मात्रा बुवाई के समय  देनी चाहिये ।

खाद की मात्रा:

130.50 कि.ग्रा. डी.ए.पी. व 58 किग्रा. यूरिया के द्वारा दी जा सकती है। इसके पश्चात् नाइट्रोजन की आधी मात्रा दो बराबर भागों में देनी चाहिये। जिसे बुवाई के बाद प्रथम व द्वितीय सिंचाई देने के तुरंत बाद छिड़क देनी चाहिये। गेहूँ की फसल में जिंक की कमी भी महसूस की जा रही है अगर धान के खेत में गेंहूं की बुबाई की जा रही है तो उसमे पहले से ही खाद की अच्छी मात्रा होती है,  इसके लिए जिंक सल्फेट की 25 कि.ग्रा. मात्रा प्रति हैक्टेयर की दर से भूमि में बुवाई से पूर्व देनी चाहिये लेकिन इससे पहले मृदा परीक्षण आवश्यक है. जो की हमें साल में एक बार करा ही लेनी चाहिए. [embed]https://www.youtube.com/watch?v=wdZnodFWSB8&t[/embed]

कटाई की व्यवस्था :

जैसा की हम जानते हैं आजकल सारा काम मशीनों से हो रहा है और उससे किसान को फायदा भी होता है लेकिन इससे गेंहूं में मिटटी और अन्य खरपतवार भी मिल जाता है उससे फसल की गुणवत्ता कम होती है. अगर किसान को अपना बीज बनाना है तो उसको हाथ से कटाई करा के उसको खेत में सूखने का पर्याप्त समय देना चाहिए. उसके बाद थ्रेसर या ट्रैक्टर से कुचलकर निकालना चाहिए जिससे की कोई भी दाना कटे नहीं और बीज को फफूद नाशक एवं कीटनाशक से उपचारित कर लोहे की टंकी या साफ बोरे में भरकर सुरक्षित जगह भण्डारित कर लेना चाहिये. इस प्रकार उत्पन्न किये गये बीज की किसान अगले वर्ष बुवाई कर सकते है.
गेहूं की अच्छी फसल तैयार करने के लिए जरूरी खाद के प्रकार

गेहूं की अच्छी फसल तैयार करने के लिए जरूरी खाद के प्रकार

गेहूं की खेती पूरे विश्व में की जाती है। पुरे विश्व की धरती के एक तिहाई हिस्से पर गेहूं की खेती की जाती है। धान की खेती केवल एशिया में की जाती है जबकि गेहूं विश्व के सभी देशों में उगाया जाता है। 

इसलिये गेहूं की खेती का बहुत अधिक महत्व है और किसान भाइयों के लिए गेहूं की खेती कृषि उपज के प्राण के समान है। इसलिये प्रत्येक किसान गेहूं की अच्छी उपज लेना चाहता है। 

वर्तमान समय में वैज्ञानिक तरीके से खेती की जाती है। इसलिये किसान भाइयों को चाहिये कि वह गेहूं की खेती में खाद की मात्रा उन्नत एवं वैज्ञानिक तरीके से करेंगे तो उन्हें अपने खेतों में अच्छी पैदावार मिल सकती है।

क्यों है अच्छी फसल की जरूरत

किसान भाइयों एक बात यह भी सत्य है कि जमीन का दायरा सिकुड़ता जा रहा है और आबादी बढ़ती जा रही है। मानव का मुख्य भोजन गेहूं पर ही आधारित है। इसलिये गेहूं की मांग बढ़ना आवश्यक है। 

इस मांग को पूरा करने के लिए अधिक से अधिक पैदावार करना होगा। जहां लोगों की जरूरतें  पूरी होंगी और वहीं किसान भाइयों की आमदनी भी बढ़ेगी। किसान भाइयों गेहूं की खेती बहुत अधिक मेहनत मांगती है। 

जहां खेत को तैयार करने के लिए अधिक जुताई, पलेवा, निराई गुड़ाई, सिंचाई के साथ गेहूं की खेती में खाद की मात्रा का भी प्रबंधन समय-समय पर करना होता है। 

आइये देखते हैं कि गेहूं की खेती में किन-किन खादों व उर्वरकों का प्रयोग करके अधिक से अधिक पैदावार ली जा सकती है।

अधिक उत्पादन का मूलमंत्र

गेहूं की खेती की खास बात यह होती है कि इसमें बुआई से लेकर आखिरी सिंचाई तक उर्वरकों और पेस्टिसाइट व फर्टिसाइड का इस्तेमाल किया जाता है। तभी आपको अधिक उत्पादन मिल सकता है।

बुआई के समय करें ये उपाय

गेहूं की अच्छी फसल लेने के लिए किसान भाइयों को सबसे पहले तो अपनी भूमि का परीक्षण कराना चाहिये, मृदा परीक्षण या सॉइल टेस्टिंग भी कहा जाता है। 

परीक्षण के उपरांत कृषि विशेषज्ञों से राय लेकर खेत तैयार करने चाहिये और उनके द्वारा बताई गई विधि से ही खेती करेंगे तो आपको अधिक से अधिक पैदावार मिलेगी।  

क्योंकि फसल की पैदावार बहुत कुछ खाद एवं उर्वरक की मात्रा पर निर्भर करती है। गेहूं की खेती में हरी खाद, जैविक खाद एवं रासायनिक खाद के अलावा फर्टिसाइड और पेस्टीसाइड का भी प्रयोग करना होता है।  

कौन सी खाद कब इस्तेमाल की जाती है, आइये जानते हैं:-

  1. गेहूं की फसल के लिए बुआई से पहले खेत को अच्छी तरह से तैयार किया जाता है। इसके लिए सबसे पहले 35 से 40 क्विंटल गोबर की सड़ी हुई खाद प्रति हेक्टेयर खेत में डालना चाहिये। इसके साथ ही 50 किलोग्राम नीम की खली और 50किलो अरंडी की खली को भी मिला लेना चाहिये। पहले इन सभी खादों के मिश्रण को खेत में बिखेर दें और उसके बाद खेत की जमकर जुताई करनी चाहिये।
  2. किसान भाई गेहूं की अच्छी फसल के लिए अगैती फसल में बुआई के समय 150 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस और 40 किलोग्राम पोटाश का इस्तेमाल करना चाहिये। गेहूं की पछैती फसल के लिए बुआई के समय 80 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस, 40 किलोग्राम पोटाश गोबर की खाद, नीम व अरंडी की खली के बाद डालना चाहिये।
  3. इसमें नाइट्रोजन की आधी मात्रा को बचा कर रख लेना चाहिये जो बाद में पहली व दूसरी सिंचाई के समय डालना चाहिये।

ये भी पढ़े : गेहूं की अच्छी फसल के लिए क्या करें किसान

पहली सिंचाई के समय

बुआई के बाद पहली सिंचाई लगभग 20 से 25 दिन पर की जाती है। गेहूं की खेती में खाद की मात्रा की बात करें तो उस समय किसान भाइयों को गेहूं की फसल के लिए 40 से 45 किलोग्राम यूरिया, 33 प्रतिशत वाला जिंक 5 किलो, या 21 प्रतिशत वाला जिंक 10 किलो, सल्फर 3 किलो का मिश्रण डालना चाहिये। इसके अलावा नैनोजिक एक्सट्रूड जैसे जायद का भी प्रयोग करना चाहिये।

दूसरी सिंचाई के समय

गेहूं की खेती में दूसरी सिंचाई बुआई के 40 से 50 दिन बाद की जानी चाहिये। उस समय भी आपको 40 से 45 किलोग्राम यूरिया डालनी होगी ।

इसके साथ थायनाफेनाइट मिथाइल 70 प्रतिशत डब्ल्यूपी 500 ग्राम प्रति एकड़, मारबीन डाजिम 12 प्रतिशत, मैनकोजेब 63 प्रतिशत डब्ल्यूपी 500 ग्राम प्रति एकड़ से मिलाकर डालनी चाहिये।

उर्वरकों का इस्तेमाल का फैसला ऐसे करें

मुख्यत: गेहूं की फसल में दो बार सिंचाई के बाद ही उर्वरकों का मिश्रण डालने का प्रावधान है लेकिन उसके बाद किसान भाइयों को अपने खेत व फसल की निगरानी करनी चाहिये। 

इसके अलावा भूमि परीक्षण के बाद कृषि विशेषज्ञों की राय के अनुसार उर्वरकों का इस्तेमाल करना चाहिये। यदि भूमि परीक्षण नहीं कराया है तो आपको अपने खेत की निगरानी अपने स्तर से करनी चाहिये और स्वयं के अनुभव के आधार पर या अनुभवी किसानों से राय लेकर फसल की जरूरत के हिसाब से उर्वरक, फर्टिसाइड व पेस्टीसाइड का इस्तेमाल करना चाहिये।

हल्की फसल हो तो क्या करें

विशेषज्ञों के अनुसार दूसरी सिंचाई के बाद देखें कि आपकी फसल हल्की हो तो आप अपने खेतों में माइकोर हाइजल दो किलो प्रति एकड़ के हिसाब से डालें। 

जिन किसान भाइयों ने बुआई के समय एनपीके का इस्तेमाल किया हो तो उन्हें अलग से पोटाश डालने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि एनपीके में 12 प्रतिशत नाइट्रोजन और 32 प्रतिशत फास्फोरस होता है और 16प्रतिशत पोटाश होता है।

डीएपी का इस्तेमाल करने वाले  क्या करें

जिन किसान भाइयों ने बुआई के समय डीएपी खाद का इस्तेमाल किया हो तो उन्हें पहली सिंचाई के बाद ही 15 से 20 किलो म्यूरेट आफ पोटाश प्रति एकड़ के हिसाब से डालना चाहिये।

क्योंकि डीएपी  में 18 प्रतिशत नाइट्रोजन होता है और 46 प्रतिशत फास्फोरस होता है और पोटाश बिलकुल नहीं होता है।

प्रत्येक सिंचाई के बाद खेत को परखें

गेहूं की फसल में 5-6 बार सिंचाई करने का प्रावधान है। किसान भाइयों को चाहिये कि वो कुदरती बरसात को देख कर और खेत की नमी की अवस्था को देखकर ही सिंचाई का फैसला करें। 

यदि प्रति सिंचाई के बाद यूरिया की खाद डाली जाये तो आपकी फसल में रिकार्ड पैदावार हो सकती है। यूरिया के साथ फसल की जरूरत के हिसाब से फर्टिसाइड और पेस्टीसाइड का भी इस्तेमाल करना चाहिये। 

पहली दो सिंचाई के बाद तीसरी सिंचाई 60 से 70 दिन बाद की जाती है। चौथी सिंचाई 80 से 90 दिन बाद उस समय की जाती है जब पौधों में फूल आने को होते हैं। पांचवीं सिंचाई 100 से 120 दिन बाद करनी चाहिये। 

  ये भी पढ़े : गन्ने की आधुनिक खेती की सम्पूर्ण जानकारी

खाद सिंचाई से पहले या बाद में डाली जाए?

  1. किसान भाइयों के समक्ष यह गंभीर समस्या है कि गेहूं की खेती में खाद की मात्रा कितनी डालनी चाहिये? हालांकि खाद डालने का प्रावधान सिंचाई के बाद ही का है लेकिन कुछ किसान भाइयों को यह शिकायत होती है कि सिंचाई के बाद खेत की मिट्टी दलदली हो जाती है, जहां खेत में घुसने में पैर धंसते हैं और उससे पौधों की जड़ों को नुकसान पहुंच सकता है। ऐसी स्थिति में किसान भाइयों को परिस्थिति देखकर स्वयं फैसला लेना होगा।
  2. यदि भूमि अधिक दलदली है और सिंचाई के बाद पैर धंस रहे हैं तो आपको खेत के पानी को सूखने का इंतजार करना चाहिये लेकिन पर्याप्त नमी होनी चाहिये तभी खाद डालें। इसके लिए आप सिंचाई से अधिक से अधिक दो दिन के बाद खाद अवश्य डाल देनी चाहिये। यदि यह भी संभव न हो पाये तो इस तरह की भूमि में सिंचाई से 24 घंटे पहले खाद डालनी चाहिये लेकिन ध्यान रहे कि 24 घंटे में सिंचाई अवश्य ही हो जानी चाहिये। तभी खाद आपको लाभ देगी अन्यथा नहीं।
  3. यदि आपके खेत की भूमि बलुई या रेतीली है, जहां पानी तत्काल सूख जाता है और आप खेत में आसानी से जा सकते हैं तो आपको सिंचाई के तत्काल बाद गेहूं की खेती में खाद की मात्रा डालनी चाहिये। ऐसे खेतों में अधिक से अधिक सिंचाई के 24 घंटे के भीतर खाद डालनी चाहिये।
संतुलित आहार के लिए पूसा संस्थान की उन्नत किस्में

संतुलित आहार के लिए पूसा संस्थान की उन्नत किस्में

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान नई दिल्ली जिसे पूसा संस्थान के नाम से जाना जाता है ने अपने 115 वर्षों के सफर में देश की कृषि को सुधारने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। हरित क्रांति के जनक के रूप में पूसा संस्थान में विभिन्न फसलों की बहुत सारी किस्में निकाली हैं जिनसे हम अपने देश की जनता को संतुलित आहार दे सकते हैं और अपने किसानों के लिए खेती को लाभदायक बना सकते हैं। दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के लिए पूसा सस्थान द्वारा निकाली गई कुछ फसलों की मुख्य किस्में व उनकी विशेषताओं के विषय में हम आपको बता रहे हैं।

संतुलित आहार की उन्नत किस्में

धान

Dhan ki kheti 1-पूसा बासमती 1 जिस की पैदावार 50 कुंतल प्रति हेक्टेयर है 135 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। 2-पूसा बासमती 1121 जिसकी पैदावार 50 कुंतल प्रति हेक्टेयर है एवं 140  दिन में पक जाती है। पकाने के दौरान चावल 4 गुना लंबा हो जाता है। 3-पूसा बासमती 6 की पैदावार 55 कुंतल प्रति हेक्टेयर है। आप पकने में 150 दिन का समय लेती है। 4-पूसा बासमती 1509 का उत्पादन 60 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होता है. यह पत्नी है 120 दिन का समय लेती है. जल्दी पकने के कारण बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट के प्रति प्रतिरोधी है. 5-पूसा बासमती 1612 का उत्पादन 51 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होता है . पकने में 120 दिन का समय लेती है . यह ब्लास्ट प्रतिरोधी किस्म है। 6-पूसा बासमती 1592 का उत्पादन 47.3 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है .यह पकने में 120 दिन का समय लेती है .बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट के प्रति प्रतिरोधी है. ये भी पढ़े: धान की उन्नत खेती कैसे करें एवं धान की खेती का सही समय क्या है 7-पूसा बासमती 1609 का उत्पादन 46 कुंटल पकने का समय 120 दिन व बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट के प्रति प्रति प्रतिरोधी है। 8-पूसा बासमती 1637 का उत्पादन 42 क्विंटल प्रति हेक्टेयर अवधि 130 दिन है । यह ब्लाइट प्रतिरोधी है. 9-पूसा बासमती 1728 का उत्पादन 41.8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकाव  अवधि 140 दिन है। वह किसी भी बैक्टीरियल ब्लाइट के प्रति प्रतिरोधी है। 10-पूसा बासमती 1718 का उत्पादन 46.4 कुंटल प्रति हेक्टेयर बोकारो अवधि 135 दिन है। यह किस्म बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट के प्रति प्रतिरोध ही है। 11-पूसा बासमती 1692 का उत्पादन 52.6 कुंतल प्रति हेक्टेयर है। यह पकने में 115 दिन का समय लेती है। उच्च उत्पादन जल्दी पकने वाली किस्म है।

 गेहूं

gehu ki kheti 1-एचडी 3059 का उत्पादन 42.6 कुंतल प्रति हेक्टेयर व पकाव अवधि 121 दिन है। यह पछेती की किस्में है। 2-एचडी 3086 का उत्पादन 56.3 कुंटल एवं पकाव अवधि 145 दिन है। 3-एचडी 2967 का उत्पादन 45.5 कुंतल प्रति हेक्टेयर। वह पकने में 145 से लेती है। 4-एच डी सीएसडब्ल्यू 18 का उत्पादन 62.8 कुंतल प्रति हेक्टेयर है। पीला रतुआ प्रतिरोधी 150 दिन में पकती है। 5-एचडी 3117 से 47.9 कुंटल उत्पादन 110 दिन में मिल जाता है । यह किस्म करनाल बंट रतुआ प्रतिरोधी पछेती किस्म है। 6-एचडी 3226 से 57.5 कुंटल उत्पादन 142 दिन में मिल जाता है। 7-एचडी 3237 से 4 कुंतल उत्पादन 145 दिन में मिलता है। ये भी पढ़े: सर्दी में पाला, शीतलहर व ओलावृष्टि से ऐसे बचाएं गेहूं की फसल 8-एच आई 1620 से 49.1 कुंदन उत्पादन के 40 दिन में मिलता है। यह कंम पानी वाली किस्म है। 9-एच आई 1628 से 50.4 कुंतल उत्पादन 147 में मिलता है। 10-एच आई 1621 से 32.8 कुंतल उत्पादन 102 दिन में मिल जाता है यह पछेती किस्म है। 11-एचडी 3271 किस्म से कुंतल उत्पादन 104 दिन में मिलता है यह अति पछेती किस्म है पीला रतुआ प्रतिरोधी है। 12-एचडी 3298 से 39 कुंतल प्रति हेक्टेयर उत्पादन 104 दिन में मिल जाता है।

मक्का

Makka ki kheti 1-पूसा एच एम 4 संकर किस्म से 64.2 कुंतल प्रति हेक्टेयर उत्पादन मिलता है । यह पकने में 87 दिन का समय देती है और इसमें प्रोटीन अत्यधिक है। 2-पूसा सुपर स्वीट कॉर्न संकर सै 93 कुंतल उत्पादन 75 दिन में मिल जाता है। 3-पूसा एचक्यूपीएम 5 संकर 64.7 कुंतल प्रति हेक्टेयर उत्पादन 92 दिन में मिलता है। बाजरा (खरीफ) 1-पूसा कंपोजिट 701 से , 80 दिन में 23.5 कुंतल उत्पादन मिलता है। 2-पूसा 1201 संकर से 28.1 कुंतल उत्पादन 80 दिन में मिलता है।

चना

chana ki kheti 1-पूसा 372 से 125 दिन में 19 कुंतल प्रति हेक्टेयर उत्पादन मिलता है। 2-पूसा 547 से 130 दिन में 18 कुंतल उत्पादन मिलता है।

अरहर

arhar ki kheti 1-अरहर की पूसा 991 किस्म 142 दिन में तैयार होती है व 16.5 कुंदन उत्पादन मिलता है। 2- पूसा 2001 से 18.7 कुंतल उत्पादन 140 दिन में मिलता है। 3- पूसा 2002 किस्म से 143 दिन में 17.7 कुंतल उपज मिलती है। 4-पूसा अरहर 16 से 120 दिन में 19.8 कुंतल उपज मिलती है।

मूंग (खरीफ)

Mung ki kheti 1-पूसा विशाल 65 दिन में 11.5 कुंतल उपज देती है। यह किस्मत एक साथ पकने वाली है। 2- पूसा 9531 से 65 दिन में 11.5 कुंटल उत्पादन मिलता है। यह भी एक साथ पकने वाली किस्म है। 3- पूसा 1431 किस्म से 66 दिन में 12.9 कुंतल प्रति हेक्टेयर उत्पादन मिलता है।

मसूर

masoor ki dal 1- एल 4076 किस्म 125 दिन में पकने वाली है । इससे 13.5 कुंतल उत्पादन मिलता है। 2- एवं 4147 से ,125 दिन में 15 कुंतल उपज मिलती है। दोनों किस्म  फ्म्यूजेरियम बिल्ट रोग प्रतिरोधी है।

सरसों(रबी)

sarson ki kheti 1-जल्द पकने वाली पीएम 25 किस्म से 105 दिन में 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज मिलती है। 2-प्रीति बाई के लिए उपयुक्त पीएम 26 किस्म से 126 दिन में 16.4 कुंतल तक उपज मिलती है। 3-41.5% की उच्च तेल मात्रा वाली पीएम 28 किस्म 107 दिन में 19.9 कुंतल तक उपज दे जाती है। 4-कुछ तेल प्रतिशत वाली पीएम 3100 किस्म से 23.3  कुंतल प्रति हेक्टेयर तक उपज मिलती है ।यह पकने में 142 दिन का समय लेती है। 5- पीएम 32 किस्म से 145 दिन में 27.1 कुंतल उपज दे ती है।

सोयाबीन (खरीफ)

soybean 1-पुसा सोयाबीन 9712 किस्म पीला मोजेक प्रतिरोधी है। 115 दिन में 22.5 कुंतल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। 2-पूसा 12 किस्म 128 दिन मैं 22.9 कुंतल उपज देती है।

लेखक

राजवीर यादव, फिरोज हुसैन, देवेंद्र के यादव एवं अशोक के सिंह
गेहूं की फसल का समय पर अच्छा प्रबंधन करके कैसे किसान अच्छी पैदावार ले सकते हैं।

गेहूं की फसल का समय पर अच्छा प्रबंधन करके कैसे किसान अच्छी पैदावार ले सकते हैं।

गेहूं जैसा कि हम जानते हैं, विश्व में सबसे ज्यादा उगाई जाने वाली अनाज की फसल है। गेंहू विश्व में उत्पादन और सबसे अधिक उगाया जाता है, इसलिए गेहूं को फसलों का राजा कहा जाता है। गेहूं किसी भी अन्य अनाज की तुलना में मिट्टी और जलवायु की अधिक विविधता में खेती करने में सक्षम है और रोटी बनाने, ब्रेड बनाने, मैक्रोनी बनाने और बहुत रूप में उपयोग के लिए भी बेहतर अनुकूल है। गेहूं में एक ग्लूटेन नाम का प्रोटीन जो बेकिंग के लिए आवश्यक होता है। इसलिए ये बेकरी प्रोडक्ट्स बनने के लिए उपयोगी है। हमारे भारत में गेहूं की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है। सबसे ज्यादा गेहूं की फसल की खेती उत्तरप्रदेश, हरियाणा और पंजाब में की जाती है। प्रति एकड़ की पैदावार पंजाब में सबसे अधिक है, क्योंकि पंजाब में 100% पानी आधारित खेती होती है।उत्पादन की बात की जाए तो हमें बढ़ती आबादी को देखते हुए 2025 तक गेहूं की मांग को पूरा करने के लिए 117 मिलियन टन गेहूं के उत्पादन करना होगा। इसके लिए हमें उन्नत तकनीकों का इस्तेमाल करके गेहूं की पैदावार को ज्यादा करना होगा।

खरीफ की फसल की कटाई के बाद कैसे करें जमीन तैयार

खरीफ की फसल कटाई के बाद हमें अपने खेत को हैरो, कल्टीवेटर या रोटावेटर चलाकर अच्छी तरह से जोतना है ताकि भूमि में पिछली फसल के अवशेष खतम हो जाएं। इस के बाद हमें अपने खेत में गोबर की खाद डाल देनी है और, एक बार और हैरो चला देनी है जिस से गोबर की खाद मिट्टी में अच्छी तरह से मिल जाए। गेहूं की फसल बोने से पहले हमें मिट्टी में नमी भी देखनी है, अगर मिट्टी में सही नमी न हो तो हमें खेत में सिंचाई करनी चाहिए ताकि फसल की उपज अच्छी हो। गेहूं की फसल में सीड़ बेड समतल और प्लेन होना चाहिये। गेहूं की फसल में ग्रोथ के लिए 20-25 डिग्री सेल्सियस तापमान चाहिये। गेहूं की फसल के लिए काली या दोमट मिट्टी अच्छी पैदावार देती है और मिट्टी का pH मान 5-7 होना चाहिए।

पोषण व्यवस्था कैसे करें

सब से पहले हमें खेत की मिट्टी की जांच करनी है, उस के आधार पर हमें अपने खेत में पोषण तत्व देने हैं। गेहूं की फसल को 40-50 किलो नाइट्रोजन, 25-30 किलो फॉस्फोरस,15-20 किलो पोटास और 10 किलो जिंक और 10 किलो सल्फर डालने से अच्छी पैदावार होती है।

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नाइट्रोजन की आधी मात्रा, फास्फोरस, पोटाश व जिंक और सल्फर की पूरी मात्रा तथा गोबर की खाद की पूरी मात्रा खेत तैयार करते समय या अंतिम जुताई के समय खेत में मिला देनी चाहिए। कई बार खड़ी फसल में जिंक की कमी दिखने पर इस का स्प्रे भी कर सकते हैं। नाइट्रोजन की शेष मात्रा को दो भागों में बांटकर पहली सिंचाई 20-25 दिन बाद एवं दूसरी 40-45 दिन के बाद प्रयोग करें।

बिजाई का उत्तम समय और बीज की मात्रा

नवंबर महीने की 15 - 25 तारीख तक बिजायी का उत्तम समय होता है। 25 नवंबर के बाद हम पछेती किस्मों की बिजाई कर सकते हैं। पछेती बिजाई पर बीज और उर्वरक की मात्रा थोड़ी ज्यादा डालनी पड़ती है, जिससे पछेती फसल की भी अच्छी पैदावार हो सकती है। एक अकड़ के लिए 40 किलो बीज पर्याप्त होता है। कम पानी वाली इलाके में 50 किलो बीज प्रति एकड़ और पछेती बिजाई पर भी 20 किलो बीज सामान्य से ज्यादा लगता है। पौधे से पौधे की दुरी 8 -10 CM होनी चाहिये और कतार से कतार की दूरी 22. 5 CM होनी चाइए। बीज 4 से 5 CM मिट्टी की गहराई में डालना चाहिए। इन नई किस्मों, जिन्हें DBW-316, DBW-55, DBW-370, DBW-371 और DBW-372 नाम दिया गया है। भारतीय कृषि परिषद की गेहूं और जौ की प्रजाति पहचान समिति द्वारा अनुमोदित किया गया है। इन किस्मो का चुनाव कर के किसान अच्छी पैदावार ले सकते है।

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सिचाई प्रबंधन

फसल में हल्की मिट्टी में करीब 6 सेंटीमीटर की गहराई तक सिंचाई करनी चाहिए। वहीं दोमट मिट्टी में करीब 8 सेंटीमीटर की गहराई तक सिंचाई करनी चाहिए। अगर हमारी जमीन में पर्याप्त जल उपलब्ध है, तो हमें फसल में 5 से 6 बार सिंचाई करनी चाहिए। सिचाई की अवधियाँ इस प्रकार हैं। पहली सिंचाई मुख्य जड़ विकास (CROWN ROOT INITATION ) - 21 -25 दिन की हो जाने पर फसल में सिंचाई करना बहुत आवश्यक है। इस स्टेज पर फसल में सिंचाई करना बहुत आवश्यक है, क्योंकि इस स्टेज के नाम से ही पता चल रहा है कि 21 दिन बाद फसल में नई जड़ का विकास होता है। अगर इस समय पर फसल को पानी नहीं मिलता है तो फसल की पैदावार बिल्कुल घट जाती है। इस लिए कई स्थानों पर जहाँ पानी की कमी है, केवल एक सिंचाई संभव है, तो किसान इस स्टेज की फसल की सिंचाई अवश्य करनी चाहिए। दूसरी सिंचाई 40 -45 दिन की फसल हो जाने पर करनी चाहिए। इस समय फसल में टिलर्स बनते हैं, यानि की फसल में फुटाव होता है। तीसरी सिंचाई 60- 65 दिन पर करनी होती है। इस समय फसल पर गेहू का विकास बिंदु भूमि की सतह से ऊपर जाता है और फसल का पूर्ण विकास होता है। चोथी सिंचाई 80 -85 दिन बाद करते हैं। इस समय पर फसल में बालियाँ बननी शुरू हो जाती हैं। इस को बूट चरण भी बोलते हैं, तब शुरू होता है जब फ्लैग लीफ के अंदर बालियाँ बनने लगती हैं । दुग्ध विकास चरण 100 - 105 दिन बाद सिंचाई करते हैं। ये फूल आने के पूरा होने के बाद शुरू होता है और प्रारंभिक गठन चरण होता है। इसे अर्ली, मीडियम और लेट मिल्क में बांटा गया है। विकासशील एंडोस्पर्म एक दूधिया तरल पदार्थ के रूप में शुरू होता है, जो बाद में दाने बन जाते हैं। इस समय पर फसल में पानी देने से दाने मोटे हो जाते हैं, जिससे फसल की पैदावार बढ़ जाती है।

फसल में खरपतवार नियंत्रण

सब से पहले हमें अपने खेत का निरीक्षण करके देखना है, कि हमारे खेत में किस प्रकार के खरपतवार हैं। फिर उस आधार पर हमें दवा का छिड़काव करना है। डोज के आधार पर ही हमें खेत में दवा का छिड़काव करना है। रेकमेंडेड डोज से ज्यादा अगर किसी भी खरपतवार नाशी का प्रयोग किया जाये तो वो फसल को भी जला सकते हैं।

संकरी पत्ती वाले खरपतवार

मंडूसी अथवा गुल्ली डंडा अथवा गेहूं का मामा खरपतवार और जंगली जई को मारने के लिए खरपतवार नासी स्ल्फोसफल्फ्यूरान या क्लोनिडाफाप प्रोपेरजिल 15 प्रतिशत डब्ल्यूपी 400 ग्राम प्रति एकड़ को पानी में घोलकर छिड़काव करें। मेटासुलफूरों 2 किलो डब्ल्यूपी का भी इस्तेमाल कर सकते हैं।

चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार

बथुआ, जंगली पालक, मोथा के लिए टू फोर डी सोडियम साल्ट 80 प्रतिशत दवा आती है। 250 एमएल दवा एक एकड़ एवं 625 एमएल प्रति हैक्टेयर के लिए उपोग मे लाएं। पानी में मिलाकर 400 से 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करने से तीन दिन में चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार मर जाते हैं। टू फोर डी ईस्टर साल्ट का प्रयोग भी फसल के 30 - 35 दिन बाद की हो जाने पर करना चाहिये नहीं तो फसल में ग्रेन मलफोर्मेशन की दिक्क्त आ सकती है।

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फसल में रोग प्रबंधन

पूर्ण रतुआ /भूरा रतुआ रोग का पहला लक्षण पत्तियों पर अनियमित रूप से सूक्ष्म, गोल, नारंगी छोटे छोटे गोल दभ्भे का दिखना है। पत्तियों में गंभीर जंग लगने से उपज में कमी आती है, रोग आमतौर पर जनवरी के दूसरे पखवाड़े या फरवरी के पहले सप्ताह में प्रकट होता है। रोग इष्टतम 15-2oC के साथ 2-35oC के तापमान रेंज में दिखायी दे सकता है।

धारीदार रतुआ या पीला रतुआ

रोग मुख्य रूप से पत्तियों पर दिखायी देता है, हालांकि पत्ती के आवरण, डंठल और बालियां भी प्रभावित हो सकती हैं। नींबू के पीले रंग के छोटे-छोटे दाने लंबी पंक्तियों में व्यवस्थित होते हैं, जो धारियों का पैटर्न देते हैं। जो पर्यावरणीय परिस्थितियों के आधार पर दिसंबर या मध्य जनवरी के अंतिम सप्ताह में दिखायी देते हैं। बाद के चरणों में पत्तियों की निचली सतह पर फीकी काली धारियाँ बन जाती हैं। प्रभावित पौधों में दाने हल्के और सिकुड़े हुए हो जाते हैं, जिससे उपज में भारी कमी आती है।

काला रतुआ

रतुआ संक्रमण का पहला लक्षण पत्तियों, पर्णच्छदों, कल्मों और फूलों की संरचनाओं का छिलना है। ये धब्बे जल्द ही आयताकार, लाल-भूरे रंग के रूप में विकसित हो जाते हैं। जब बड़ी संख्या में स्पोर्स फटते हैं और अपने बीजाणु छोड़ते हैं, तो पूरी पत्ती का ब्लेड और अन्य प्रभावित हिस्से दूर से भी भूरे रंग के दिखाई देंगे।

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तीनों रतुआ का उपाय :

  • देर से बुआई करने से बचें।
  • नाइट्रोजनयुक्त उर्वरकों का संतुलित प्रयोग करें।
  • प्लांटवैक्स @ 0.1% के साथ बीज ड्रेसिंग के बाद एक ही रसायन के साथ दो छिड़काव।
  • 15 दिनों के अंतराल पर जिनेब @ 0.25% या मैनकोजेब @ 0.25% या प्लांटावैक्स @ 0.1% के साथ दो या तीन बार छिड़काव करें।
  • रोग के लक्षण दिखाई देते ही 200 मिली. प्रोपीकोनेजोल 25 ई.सी. या पायराक्लोट्ररोबिन प्रति लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ छिड़काव करें।
  • रोग के प्रकोप और फैलाव को देखते हुए दूसरा छिड़काव 10-15 दिन के अंतराल में करें।

करनाल बंट

खेत में करनाल बंट के लक्षणों को पहचानना अक्सर मुश्किल होता है, क्योंकि किसी दिए गए सिर पर संक्रमित गुठली की घटना कम होती है। लक्षण कटाई के बाद बीज पर सबसे आसानी से पाए जाते हैं।

लूज स्मट

यह रोग आंतरिक रूप से संक्रमित बीज से पैदा होता है तथा संक्रमित बीज ऊपर से देखने में बिल्कुल स्वस्थ बीजों की तरह ही दिखाई देता है। इस रोग से प्रति वर्ष उत्तर भारत में गेहूं की उपज में 1-2 प्रतिशत की हानि होती है। बुवाई से पहले बीज को वीटावैक्स 2 ग्राम प्रति किलो बीज से उपचारित करें। संक्रमित कानों को मिट्टी के अंदर दबा दें |
गेहूं की फसल में पत्तियों का पीलापन कर रहा है किसानों को परेशान; जाने क्या है वजह

गेहूं की फसल में पत्तियों का पीलापन कर रहा है किसानों को परेशान; जाने क्या है वजह

रबी की फसल में किसान बढ़-चढ़कर गेहूं का उत्पादन कर रहे हैं। किसानों को गेहूं की फसल लगाए हुए लगभग एक महीना होने को आ गया है। इन सबके बीच किसानों को एक बहुत बड़ी समस्या ने घेर लिया है और वह है गेहूं की पत्तियों का पीला पड़ जाना। गेहूं की फसल में आ रही इस समस्या को लेकर किसानों को बेहद परेशानी का सामना करना पड़ रहा है और साथ ही वह यह भी पता लगाने में सक्षम नहीं है कि ऐसा किस कारण से हो रहा है। आइए जानते हैं, इसका कारण क्या हो सकता है।

फसल में जरूरत से ज्यादा पानी देना

बहुत बार ऐसा होता है की फसल में जरूरत से ज्यादा पानी दे दिया जाता है, जिसके कारण उसकी जड़ों में खुलकर हवा नहीं लग पाती है। गेहूं की फसल की पत्तियां पीली पड़ना शुरू हो जाती हैं।


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जमीन में मैंगनीज की कमी होना

ज्यादातर रेतीली भूमि में जमीन के अंदर मैंगनीज कम मात्रा में पाया जाता है, ऐसे में अगर इस तरह की जमीन में गेहूं की बुवाई की जाती है। फसल के खराब होने की संभावना बनी रहती है और यह शुरुआत फसल की पत्तियां पीली होने से ही होता है। एक्सपर्ट की सलाह मानें तो अगर आपने इस तरह की जमीन में गेहूं लगाई है, तो आपको मैंगनीज का छिड़काव करने की जरूरत है।

नाइट्रोजन की कमी के कारण

नाइट्रोजन की कमी के कारण ही गेहूं की फसल की पत्तियां पीली पड़ना शुरू हो जाती हैं। अगर खेत में यूरिया का इस्तेमाल सही तरह से ना किया जाए तो फसल में नाइट्रोजन की कमी हो सकती है। इसके अलावा अगर बहुत ज्यादा बारिश होती है, तो वह भी नाइट्रोजन को जमीन में कम कर देता है।

गंधक की कमी होना

अगर ठंड के समय बारिश लंबे समय तक हो जाए तो जमीन में गंधक की कमी होने लगती है। एक्सपर्ट की मानें तो आप खेत में जिप्सम का छिड़काव करते हुए गंधक की कमी को खत्म कर सकते हैं। गंधक की कमी भी गेहूं की फसल में पत्तियों पर सीधा असर करती है और इससे आधे से ज्यादा पत्तियां पीली पड़ जाती हैं।
गेहूं का उत्पादन करने वाले किसान भाई इन रोगों के बारे में ज़रूर रहें जागरूक

गेहूं का उत्पादन करने वाले किसान भाई इन रोगों के बारे में ज़रूर रहें जागरूक

सर्दियों के मौसम में लगभग पूरे उत्तर भारत में गेहूं की फसल लगाई जाती है। इस फसल के लिए सर्दियां काफी अच्छी मानी गई है। गेहूं का अच्छा उत्पादन किसानों को मार्किट में इससे अच्छे दाम दिवा सकता है। लेकिन अगर कहीं आपकी फसल में किसी ना किसी तरह के कवक जनित व अन्य रोग लग जाएं तो ये गेहूं को बर्बाद भी कर सकते हैं। ऐसे में आपके मुनाफे में कमी तो होती ही है साथ ही आपको परेशानी का सामना भी करना पड़ता है। किसानों को इन सभी तरह के रोगों से सावधान रहने की जरूरत है। देश के ज्यादातर हिस्सों में गेहूं की बुवाई पूरी हो चुकी है और कुछ हिस्सों में इसकी बुवाई होना बाकी भी है। एक्सपर्ट की माने तो ये पाला आलू, सरसों समेत अन्य रबी फसलों के लिए नुकसान पहुंचाता है। वहीं अधिक सर्दी पड़ना गेंहूँ की सेहत के लिए बेहद लाभकारी है। आलू कम सिंचाई वाली फसल है। इसलिए फसल में अधिक पानी होना इसे कई बार नुकसान पहुंचाता है। आइए आज हम जानते हैं, कि और कौन-कौन से रोग गेहूं को नुकसान पहुंचाते हैं।

करनाल बंट रोग

यह गेहूं में होने वाला काफी प्रमुख रोग है। इस रोग की उपज मानी जाए तो यह रोग मृदा, बीज एवं वायु जनित रोग है। गेंहूँ में होने वाला करनाल बंट टिलेटिया इंडिका नामक कवक से पैदा होता है। इसे आंशिक बंट कहा जाता है। इस रोग के होने पर फसल पर लगने वाली बाली के अंदर काला बुरादा भर जाता है। ऐसा होने से पूरी फसल एकदम खराब हो जाती है और उससे सड़ी हुई मछली जैसी बदबू आती है। यह रोग ट्राईमिथाइल एमीन के कारण होता है। यह गेहूं के बड़े क्षेत्र को प्रभावित करता है। इसलिए इस रोग को गेहूं का कैंसर भी कहा जाता है।

अनावृत कंड रोग

यह रोग भी काफी मात्रा में इस फसल को प्रभावित करता है। गेहूं में होने वाला प्रमुख रोग अनावृत कंड लूज स्मट के नाम से भी जाना जाता है। यह बीज जनित रोग है। इसका सबसे बड़ा कारण अस्टीलेगो न्यूडा ट्रिटिसाई नामक कवक है। इस रोग में गेहूं के पौधों की सारी बालियां काली होने लगती है। एक बार बालियां काली हो जाने के बाद में पौधा सूख जाता है। यह बड़े फसली क्षेत्र को प्रभावित करता है, इसके होने पर गेहूं की उत्पादकता तेेजी से घटती है।
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चूर्णिल आसिता रोग

चूर्णिल आसिता मृदा एवं हवा से होने वाला रोग है। इसका प्रमुख कारण ब्लूमेरिया ट्रिटिसाई नामक कवक है। इस रोग के होने पर पौधों की पत्ती, पर्णव्रतों और बालियों पर सफेद चूर्ण जम जाता है। बाद में यह पूरे पौधे पर फैल जाता है। प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया बंद होने के कारण पौधे की मौत हो जाती है।

लीफ ब्लाइट रोग

यह रोग मुख्यत: बाईपोलेरिस सोरोकिनियाना नामक कवक से पैदा होता है। यह रोग सम्पूर्ण भारत में पाया जाता है। लेकिन इस रोग का प्रकोप नम तथा गर्म जलवायु वाले उत्तर पूर्वी क्षेत्र में अधिक होता है। इस रोग में फसल की पत्तियों पर भूरे रन के धब्बे बनने शुरू हो जाते हैं। जो फसल के उत्पादन को प्रभावित करते हैं।
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फुट रांट रोग

यह रोग ज्यादा तापमान वाले हिस्से जैसे मध्य प्रदेश, गुजरात तथा कर्नाटक में ज्यादा फसलों को प्रभावित करता है और सोयाबीन-गेहूं फसल चक्र में अधिक होता है। यह रोग स्क्लरोसियम रोलफसाई नामक कवक से होता है, जो कि संक्रमित भूमि में पाया जाता है। इसमें पौधों की जड़ के ऊपर काले और सफ़ेद फफूंद लगने लगते हैं। जो पौधे की जड़ को ही सड़ा देता है और रोगी पौधा मर जाता है।
जनवरी के महीने में कुछ सावधानी बरतते हुए किसान अपने गेहूं का उत्पादन कर सकते हैं डबल

जनवरी के महीने में कुछ सावधानी बरतते हुए किसान अपने गेहूं का उत्पादन कर सकते हैं डबल

देशभर में कड़ाके की ठंड पड़ रही है और यह सभी के लिए इस समस्या का कारण बनी हुई है। उत्तर भारत में ठंड के हालात बहुत बुरे हैं और बहुत सी जगह तापमान 0 डिग्री सेल्सियस से भी नीचे पहुंच गया है। ऐसे में किसानों ने जो रबी की फसल उगाई थी उसका उत्पादन चरम सीमा पर है। गेहूं का उत्पादन अक्टूबर के महीने में किया जाता है और मार्च और अप्रैल के बीच की कटाई शुरु कर दी जाती है। ऐसे में जनवरी का महीना इस फसल के लिए बहुत ज्यादा अहम माना गया है। अगर जनवरी के महीने में स्पेशल पर ध्यान ना दिया जाए तो पूरी की पूरी फसल बर्बाद भी हो सकती है। साथ ही, अगर किसान थोड़ा सा ध्यान देते हुए इस महीने में फसल की देखभाल करें तो अपने उत्पादन को काफी ज्यादा बढ़ा सकते हैं। गेहूं की फसल की अच्छी उपज के लिए साफ सफाई बहुत जरूरी है। विशेषज्ञों का कहना है, कि गेहूं के साथ पैदा हुई खरपतवार फसल को नुकसान पहुंचाती है। इससे बचाव जरूरी है। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, अब बिहार के विशेषज्ञों ने सलाह दी है, कि जरा सी सूझबूझ से जनवरी को खेती के लिहाज से कमाई का महीना बनाया जा सकता है। किसान जनवरी के महीने में अपनी फसल को निम्नलिखित बातों का ध्यान रखते हुए सही रख सकते हैं।
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  • कृषि विभाग के एक्सपर्ट का कहना है, कि गेहूं की बुवाई पूरी हो चुकी है। तो ऐसे में इस महीने में फसल को खरपतवार से बहुत ज्यादा नुकसान होने का खतरा रहता है। गेहूं की फसल में पहली सिंचाई के बाद चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार पैदा हो जाते हैं। जो फसल को काफी नुकसान पहुंचा सकते हैं। इससे बचाव के लिए 2.4-डी सोडियम साल्ट 80 प्रतिशत का 500 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव कर देना चाहिए। छिड़काव 25-30 दिनों में कर देना चाहिए.
  • अगर आपको खेत में चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार नहीं दिख रहे हैं। आप के खेत में सक्रिय पत्ती वाले खरपतवार हैं, तो आप आइसोप्रोट्युरॉन 50 प्रतिशत का 2 किलोग्राम या 75 प्रतिशत का, 2 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब छिड़काव करें। यह छिड़काव फ्लैट फैन नोजलवारी स्पे मशीन से करें तो बेहतर रिजल्ट देखने को मिल सकते हैं।
  • छेद में तना करने वाले कीट भी गेहूं की फसल को काफी ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं। अगर समय रहते इस कीट का इलाज न किया जाए तो यह पूरी की पूरी फसल को बर्बाद कर सकता है। इस तना छेदक कीट से छुटकारा पाने के लिए 10 फेरोमीन ट्रैप प्रति हेक्टेयर के हिसाब से लगाना चाहिए। यदि अधिक जरूरत है, तो डायमेथोएट 30 प्रतिशत ई.सी 750 का पानी में घोल बनाकर छिड़काव कर देना चाहिए।

देश के कुछ राज्यों में बढ़ गई है गेहूं की बुवाई

कृषि मंत्रालय द्वारा दिए गए आंकड़ों की बात की जाए तो पूरे भारतवर्ष में राजस्थान राज्य में गेहूं की बुवाई सबसे ज्यादा की गई है। अगर जगह के हिसाब से बात की जाए तो लगभग ढाई लाख हेक्टेयर भूमि पर गेहूं की बुवाई की गई है। राजस्थान के बाद दूसरा नंबर उत्तर प्रदेश का आता है और यहां पर लगभग दो लाख हेक्टेयर जमीन पर गेहूं की फसल बोई जा चुकी है। इसके बाद महाराष्ट्र, गुजरात, छत्तीसगढ़, बिहार, पश्चिम बंगाल, जम्मू और कश्मीर और असम में अधिक गेहूं की बुवाई की गई है। इस बार के गेहूं बुवाई के आंकड़े देखकर केंद्र सरकार खुश है। इस साल गेहूं के रिकॉर्ड उत्पादन की संभावना जताई जा रही है। किसान अगर इस महीने में जरा सा ध्यान देते हैं, तो अपना उत्पादन और आमदनी दोनों ही पिछले साल के मुकाबले बढ़ाई जा सकती है।
तेज बारिश और ओलों ने गेहूं की पूरी फसल को यहां कर दिया है बर्बाद, किसान कर रहे हैं मुआवजे की मांग

तेज बारिश और ओलों ने गेहूं की पूरी फसल को यहां कर दिया है बर्बाद, किसान कर रहे हैं मुआवजे की मांग

इस साल पड़ने वाली जोरों की ठंड ने सभी को परेशान किया है। अब घर में पाले के बाद ओले से किसान बेहद परेशान हो रहे हैं। मध्य प्रदेश के छतरपुर व अन्य जिलों में चना, मटर, गेहूं, सरसों की फसलों को अच्छा खासा नुकसान पहुंचा है। किसानों ने मुआवजे की मांग की है। किसानों का संकट खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। पहले सूखे के कारण बिहार, छत्तीसगढ़ में किसानों की फसलें ही सूख गई थीं। इनके आस पड़ोस के राज्यों में बाढ़ ने कहर बरपाया। वहीं खरीफ सीजन के आखिर में तेज बारिश ने धान समेत अन्य फसलों को बर्बाद कर दिया। पिछले कुछ दिनों से किसान पाले को लेकर बहुत ज्यादा परेशान हैं। इस बार बारिश और उसके साथ पड़े ओले ने फसलों को नुकसान पहुंचाया है। किसान मुश्किल से ही अपनी फसलों का बचाव कर पा रहे हैं। बारिश से पड़ने वाले पानी से तो किसान जैसे-तैसे बचाव कर लेते हैं। लेकिन ओलों से कैसे बचा जाए। 

मध्य प्रदेश में ओले से फसलों को हुआ भारी नुकसान

मध्य प्रदेश में ओले से कई जगहों पर फसलें बर्बाद हो गई हैं। छतरपुर में बारिश से गेहूं की फसल पूरी तरह खत्म होने की संभावना मानी गई है। इस क्षेत्र में किसानों ने सरसों, चना, दालों की बुवाई की है। अब ओले पड़ने के कारण इन फसलों को नुकसान पहुंचा है। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, बारिश और ओले से हुए नुकसान को लेकर छतरपुर जिला प्रशासन ने भी जानकारी दी है।

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इन क्षेत्रों में चना, गेहूं को भी नुकसान

बुदेलखंड के छतरपुर जिले में बिजावर, बड़ा मल्हरा समेत अन्य क्षेत्रों में पिछले तीन दिनों में ओले पड़ना दर्ज किया गया है। इससे चना, गेहूं समेत रबी की अन्य फसलों को भी नुकसान पहुंचा है। किसानों से हुई बातचीत में पता चला है, कि जब तक खेती का सही ढंग से आंकलन नहीं किया जाएगा। तब तक उनकी तरफ से यह बताना संभव नहीं है, कि फसल को कितना नुकसान हुआ है। 

प्रशासन कर रहा फसल नुकसान का आंकलन

छतरपुर समेत आसपास के जिलों में ओले इतने ज्यादा गिरे हैं, कि ऐसा लगता है मानो पूरी बर्फ की चादर बिछ गई हो। किसान अपनी आर्थिक स्थिति को लेकर भी काफी परेशान हो गए हैं। इसीलिए छतरपुर जिला प्रशासन ने फसल के नुकसान को लेकर सर्वे कराना शुरू कर दिया है। ताकि प्रश्नों का सही ढंग से आकलन किया जा सके और उचित रिपोर्ट कृषि विभाग को भेजी जाए। प्रशासन द्वारा दी गई रिपोर्ट के आधार पर ही किसानों को मुआवजा दिया जाएगा 

किसान कर रहे मुआवजे की मांग

लोकल किसानों से हुई बातचीत से पता चला कि इस समय में होने वाली कम बारिश गेहूं की फसल के लिए बहुत ज्यादा फायदेमंद है। लेकिन पिछले 3 दिन से बारिश बहुत तेज हुई है और साथ में आने वाले ओलों ने फसलों को पूरी तरह से बर्बाद कर दिया है। किसान अपनी फसल को लेकर परेशान हैं और निरंतर सरकार से मुआवजे की मांग कर रहे हैं।

गेहूं की फसल बारिश और ओले के अलावा इस वजह से भी होगी प्रभावित

गेहूं की फसल बारिश और ओले के अलावा इस वजह से भी होगी प्रभावित

बेमौसम आई बारिश ने पुरे देश में गेहूं की फसल को काफी क्षतिग्रस्त कर दिया है। किसान वैसे ही बहुत सी समस्याओं से पीड़ित रहते हैं। अब प्राकृतिक आपदाएं भी उनके जी का जंजाल बन रही हैं। हालाँकि, राज्य सरकारें भी अपने स्तर से किसानों की क्षति पर ध्यान रखा जा रहा है। पहले भी खरीफ ऋतु की फसलों को प्राकृतिक आपदाएं जैसे कि बारिश, बाढ़ एवं सूखा के कारण बेहद नुकसान हुआ था। फिलहाल, रबी फसलों में किसान भाइयों को बेहतर आय की आशा थी। वहीं, इस सीजन के अंदर भारत में रिकॉर्ड तोड़ कर गेहूं के उत्पादन हेतु बीजारोपण भी किया गया है। किसान भाइयों का यह प्रयास है, कि खेतों में गेहूं के उत्पादन से मोटी आमदनी हो जाए। परंतु, बीते कुछ दिनों से मौसम परिवर्तन होने की वजह से किसानों की उम्मीद पर पानी फेरना चालू कर दिया है। भारत के बहुत से राज्यों में अत्यधिक मूसलाधार बारिश दर्ज की गई है। तो वहीं, मौसम विभाग ने बताया है, कि फिलहाल एक दो दिन अभी और बारिश होने की आशंका है। बारिश से क्षतिग्रस्त हुई फसल से अब देश को भी अनाज के संकट का सामना करना पड़ सकता है।

इन प्रदेशों की स्थिति पश्चिमी विक्षोभ ने की खराब

मौसम के जानकारों ने बताया है, कि पश्चिमी विक्षोभ मतलब वेस्टर्न डिस्टर्बेंस की वजह से परिस्थितियां प्रतिकूल हो गई हैं। इसी लिए जल भरे बादलों का रुझान इन प्रदेशों की तरफ हुआ है। आपको बतादें कि बीते दो दिनों में उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात, राजस्थान से महाराष्ट्र सहित भारत के विभिन्न राज्यों में जोरदार हवाओं के साथ-साथ बारिश एवं ओलावृष्टि देखने को मिली है।

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बारिश की मार से गेंहू की फसल सबसे ज्यादा बर्बाद

जैसा कि हम सब जानते हैं, कि गेंहू रबी सीजन में उगाई जाने वाली प्रमुख फसल है। देश विदेशों तक गेंहू की माँग काफी होती है। वर्तमान में तीव्र बारिश गेहूं की मृत्यु बन सकती है। बीते दो दिनों से बहुत से राज्यों में तेज वर्षा हो रही है। अब ऐसी स्थिति में किसानों को गेहूं की फसल बर्बादी होने का भय सता रहा है। जानकारों का मानना है, कि ज्यादा वर्षा हुई तो गेहूं की पैदावार निश्चित रूप से काफी प्रभावित होगी। तीव्र हवा, बारिश और ओले पड़ने की वजह से खेतों में ही गेहूं की फसल गिर चुकी है। मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और राजस्थान के विभिन्न जनपदों में गेहूं की फसल क्षतिग्रस्त होने की भी खबरें सामने आ रही हैं। इतना ही नहीं इसके चलते आम और लीची की पैदावार भी इन प्रदेशों में प्रभावित हो सकती है।

गेंहू की फसल को रोग एवं कीट संक्रमण की संभावना

किसान को केवल बारिश ही नुकसान नहीं पहुँचा रही है। बारिश की वजह से उत्पन्न कीट संक्रमण भी गेंहू फसल हानि करने में अपनी नकारात्मक भूमिका निभाएगा। इसके अतिरिक्त भी बारिश की वजह से होने वाली सड़न-गलन से भी गेहूं की फसल को काफी हानि होने की संभावना है। इसकी वजह से गेहूं की फसल में रोग और कीट लगने का संकट तो बढ़ा ही है। महाराष्ट्र राज्य के चंद्रपुर जनपद के खेतो में कटाई की हुई गेहूं-चना के साथ बाकी फसलों के भीगने और खेतों में जल भराव से किसानों को काफी हानि का सामना करना पड़ा है। प्रभावित किसानों द्वारा सरकार से फसल बीमा के अनुरूप सहायता धनराशि की मांग जाहिर की गई है। तो उधर, राजस्थान राज्य के बूंदी जनपद में भी फसल को काफी हानि पहुँची है। वहीं, महाराष्ट्र के मराठवाड़ा में 62000 हेक्टयर से ज्यादा कृषि भाग को हानि हुई है। नांदेड़, बीड, लातूर, औरंगाबाद और हिंगोली में कृषकों को काफी नुकसान का सामना करना पड़ा है।
गेंहू की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण बिंदुओं की विस्तृत जानकारी

गेंहू की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण बिंदुओं की विस्तृत जानकारी

अक्टूबर माह से गेंहू की बुवाई की शुरूआत हो जाती है। गेंहू की खेती में बुवाई से लगाकर कटाई तक यदि सभी कार्यों को बेहतर ढ़ंग से करते हैं, तो वह अच्छा खासा मुनाफा उठा सकते हैं। जैसा कि हम जानते हैं, कि खरीफ सीजन चल रहा है। इस सीजन की फसलों की कटाई के पश्चात किसान भाई रबी सीजन की फसलों की बुवाई शुरू कर देंगे। गेहूं की फसल रबी की प्रमुख फसलों से एक है, इसलिए किसान कुछ बातों का ध्यान रखकर अच्छा उत्पादन पा सकते हैं। भारत ने विगत चार दशकों में गेहूं पैदावार में उपलब्धि हासिल की है। गेहूं का उत्पादन वर्ष 1964-65 में जहां केवल 12.26 मिलियन टन था, जो बढ़कर के साल 2019-20 में 107.18 मिलियन टन के एक ऐतिहासिक उत्पादन स्तर पर पहुंच गया है। भारत की जनसंख्या को खाद्य एवं पोषण सुरक्षा मुहैय्या करने के लिए गेहूँ के उत्पादन और उत्पादकता में लगातार बढ़ोत्तरी की जरूरत है। एक अनुमान के मुताबिक, साल 2025 तक भारत की जनसँख्या तकरीबन 1.4 बिलियन होगी। इसके लिए वर्ष 2025 तक गेहूं की अनुमानित मांग तकरीबन 117 मिलियन टन होगी। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए नवीन तकनीकियाँ विकसित करनी होंगी। नवीन किस्मों की प्रगति तथा उनकी उच्च उर्वरता की स्थिति में परीक्षण से ज्यादा से ज्यादा उत्पादन क्षमता प्राप्त की जा सकती है।

भारत में गेंहू की खेती करने वाले प्रमुख राज्य

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि उत्तरी गंगा-सिंधु के मैदानी क्षेत्र भारत के सबसे उपजाऊ एवं गेहूं के सर्वाधिक उत्पादन वाले इलाके हैं। दरअसल, इस इलाके में गेहूं के प्रमुख उत्पादक राज्य जैसे कि दिल्ली, राजस्थान (कोटा व उदयपुर सम्भाग को छोड़कर) पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड के तराई क्षेत्र, जम्मू कश्मीर के जम्मू व कठुआ जनपद व हिमाचल प्रदेश का ऊना जिला व पोंटा घाटी शम्मिलित हैं। इस इलाके में तकरीबन 12.33 मिलियन हैक्टेयर क्षेत्रफल पर गेहूं का उत्पादन किया जाता है। तकरीबन 57.83 मिलियन टन गेहूं की पैदावार होती है। इस इलाके में गेहूं की औसत उत्पादकता तकरीबन 44.50 कुंतल/हैक्टेयर है। वहीं, किसानों के खेतों पर आयोजित गेहूं के अग्रिम पंक्ति प्रदर्शनों में गेहूं की अनुशंसित प्रौद्योगिकियों को अपनाकर 51.85 कुंतल/हैक्टेयर की पैदावार अर्जित की जा सकती है। विगत कुछ सालों से इस इलाके में गेहूं की उन्नत किस्में एचडी 3086 व एचडी 2967 की बुवाई बड़े पैमाने पर की जा रही है। परंतु, इन किस्मों के प्रतिस्थापन के लिए उच्च उत्पादन क्षमता एवं रोग प्रतिरोधी किस्में डीबीडब्ल्यू 187, डीबीडब्ल्यू 222 और एचडी 3226 आदि किस्मों को बड़े स्तर पर प्रचारित-प्रसारित किया गया है। यह भी पढ़ें: गेहूं की फसल का समय पर अच्छा प्रबंधन करके कैसे किसान अच्छी पैदावार ले सकते हैं।

अत्यधिक पैदावार हेतु करें इन उन्नत किस्मों का चुनाव

गेहूं की खेती में किस्मों का चयन एक महत्वपूर्ण फैसला है, जो यह सुनिश्चित करता है, कि कितना उत्पादन होगा। सदैव नवीन रोगरोधी व उच्च उत्पादन क्षमता वाली किस्मों का चयन करना चाहिए। सिंचित व समय से बिजाई के लिए डीबीडब्ल्यू 303, डब्ल्यूएच 1270, पीबीडब्ल्यू 723 और सिंचित व विलंब से बुवाई के लिए डीबीडब्ल्यू 173, डीबीडब्ल्यू 71, पीबीडब्ल्यू 771, डब्ल्यूएच 1124, डीबीडब्ल्यू 90 व एचडी 3059 की बिजाई कर सकते हैं। वहीं, ज्यादा फासले से बुवाई के लिए एचडी 3298 किस्म की पहचान की गई है। सीमित सिंचाई और समय से बुवाई के लिए डब्ल्यूएच 1142 किस्म को अपनाया जा सकता है। बुवाई का समय बीज दर व उर्वरक की समुचित मात्रा गेहूं की बुवाई करने से 15-20 दिन पूर्व खेत तैयार करने के दौरान 4-6 टन/एकड़ की दर से गोबर की खाद का इस्तेमाल करने से मृदा की उर्वरक शक्ति बढ़ जाती है।

जीरो टिलेज व टर्बो हैप्पी सीडर से बुवाई की जाती है

धान-गेहूं फसल पद्धति में जीरो टिलेज तकनीक से गेहूं की बुवाई एक कारगर एवं फायदेमंद तकनीक है। इस तकनीक के जरिए धान की कटाई के उपरांत भूमि में संरक्षित नमी का इस्तेमाल करते हुए, जीरो टिल ड्रिल मशीन से गेहूं की बुवाई बिना जुताई के ही की जाती है। जहां पर धान की कटाई काफी विलंब से होती है। वहां पर यह मशीन बेहद ही ज्यादा कारगर साबित हो रही है। जल भराव वाले इलाकों में भी इस मशीन की काफी उपयोगिता है। यह धान के फसल अवशेष प्रबंधन की सबसे प्रभावी एवं कुशल विधि है। इस विधि के माध्यम से गेहूं की बुवाई करने से पारंपरिक बुवाई की तुलना में समान अथवा ज्यादा पैदावार प्राप्त होती है व फसल गिरती नहीं है। फसल अवशेषों को सतह पर रखने से पौधों के जड़ इलाके में नमी ज्यादा वक्त तक संरक्षित रहती है, जिसके कारण तापमान में वृद्धि का दुष्प्रभाव पैदावार पर नही पड़ता और खरपतवार भी कम होते हैं। गेहूं की खेती में सिंचाई प्रबंधन है जरूरी।

गेहूं की खेती के लिए सिंचाई प्रबंधन बेहद आवश्यक होता है

बतादें, कि ज्यादा उत्पादन के लिए गेहूं की फसल को पांच-छह सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। पानी की मौजूदगी मिट्टी के प्रकार एवं पौधों की जरूरतों के अनुसार सिंचाई करनी चाहिए। गेहूं की फसल के जीवन चक्र में तीन अवस्थाएं जैसे कि चंदेरी जड़े निकलना (21 दिन), पहली गांठ बनना (65 दिन) और दाना बनना (85 दिन) ऐसी हैं, जिन पर सिंचाई करना अत्यंत जरूरी है। अगर सिंचाई हेतु जल पर्याप्त मात्रा में मौजूद हो तो प्रथम सिंचाई 21 दिन पर इसके उपरांत 20 दिन के समयांतराल पर बाकी पांच सिंचाई करें। नवीन सिंचाई तकनीकों जैसे फव्वारा विधि अथवा टपक विधि भी गेहूं की खेती के लिए काफी बेहतरीन होती है। कम सिंचित क्षेत्रों में इनका इस्तेमाल काफी पहले से होता आ रहा है। परंतु, जल की बाहुलता वाले इलाकों में भी इन तकनीकों को अपनाकर जल का संचय किया जा सकता है। साथ ही, बेहतरीन उत्पादन लिया जा सकता है। सिंचाई की इन तकनीकों पर केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा अनुदान के तौर पर धनराशि भी प्रदान की जा रही है। कृषक भाईयों को इन योजनाओं का लाभ लेकर सिंचाई जल प्रबंधन के राष्ट्रीय दायित्व का भी निर्वहन करना चाहिए।
गेहूं चना और आलू की खेती करने वाले किसान कैसे बचा सकते हैं अपनी फसल

गेहूं चना और आलू की खेती करने वाले किसान कैसे बचा सकते हैं अपनी फसल

मौसम की अनिश्चितताओं के बीच भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान ने मौसम के बदलते मिज़ाज को देखते हुए खेती से जुड़ी एक एडवायजरी जारी की है। ताकि इस बार सही समय पर सही कदम उठाते हुए फसलों को होने वाले नुकसान को कम किया जा सके। विभाग द्वारा किसानों को सलाह दी गई है, कि अगर उनके इलाके में ज्यादा बारिश हुई है तो अपनी खड़ी फसल में अब वे सिंचाई ना करें।

कैसे कर सकते हैं किसान गेहूं की फसल की निगरानी

इस मौसम में गेहूं की फसलों में रतुआ रोग काफी ज्यादा देखने को मिलता है। माना जा रहा है, कि अगर इस रोग पर पहले से ध्यान दिया जाए तो फसल को इससे होने वाले नुकसान से बचाया जा सकता है। अगर गेहूं की फसल में पत्तियों पर आपको काले, पीले या भूरे रंग के धब्बे दिखाई दे रहे हैं। तो तुरंत डाइथेन एम-45 की 2.5 ग्राम मात्रा एक लीटर पानी में मिलाकर पूरी फसल पर छिडकाव करें। ऐसा करने से फसल को इस रोग से होने वाले नुकसान से बचाया जा सकता है।
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पीला रतुआ रोग गेहूं में 10-20°C तापमान के बीच होता है। अगर तापमान 25 डिग्री से ऊपर चला जाए तो रोग गेहूं को प्रभावित नहीं करता है। इसी तरह से भूरा रतुआ रोग 15-25 डिग्री सेल्सियस तापमान पर होता है। साथ ही, भूमि में नमी हो तो ये और फैल जाता है।

चने की फसल में कैसे करें कीट से बचाव

चने की फसल को छेदक कीट लगने का खतरा बन रहता है। अगर फसल में फुल आ गए हैं तो 3 से 4 फैरोमेन ट्रैप प्रति एकड़ के हिसाब से लगाने पर इससे बचा जा सकता है।

आलू की फसल का बचाव कैसे करें

अगर आपने आलू की खेती की है तो इसमें झुलसा रोग होने की संभावना रहती है। एक बार इस रोग के लक्षण देखते ही 2 ग्राम कैप्टान एक लीटर पानी में मिलाकर पूरी फसल पर छिडकाव करें।